वो हॅसीन एक ख्वाब़ थी
मेरी जागती आँखों का, वो हॅसी एक ख्वाब़ थी
उस अंधेरी रात में वो, तेज रोशनी सी एहसास थी.
लग रही थी खुब़ वो तो, आसमानी लिवास़ में,
बड़ी अदब़ थी नज़रें उनकी, कुछ अलग वो पहचान थी.
मिलती थी नजरें जो उनसे, चेहरा छुपा लेती,
देख कर भी देखुँ उसको, वो अज़ब ही प्यास थी.
क्या थी खुशबु सॉसों की, जो हवा मॅहकाती थी,
और लव़ों की सुर्खियाँ, जैसे गुलों की ताज़गी.
मै नशे में था कहाँ ! पर होश अपना भी नहीं था,
वो हय़ा थी या अदा थी, मै तो समझा भी नहीं था.
गुलफ़ाम था वो हुस्ऩ उनका, जो मै ही मै बरसाती थी.
कुछ कहो अब, चुप ना रहो, दिल मेरा बेताब था,
इस तरफ़ था शोर इतना, फिर वो खामोश थी.
बीता सफ़र वो चली गई, कुछ भी उनसे कह ना पाया,
दिल ने समझाया मुझको, वो मेरी तलाश़ थी.
-- राकेश झा
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