Friday, October 2, 2009

आभार

प्रिय दोस्तों,
आपसबों का आभार वयक्त करता हूँ, आपके शब्दों ने मुझे नयी ऊर्जा दी है.
वक़्त की कमी बहुत खलती है, पर आपके करीब आने को मेरी तम्मना मुश्ताक है,

अपनी नयी रचना - 'मुझे तनहा ही जीने दो' जल्द ही प्रकाशित करूंगा..

धन्यवाद..
राकेश झा

Sunday, September 27, 2009

वो हॅसीन एक ख्वाब़ थी

वो हॅसीन एक ख्वाब़ थी


मेरी जागती आँखों का, वो हॅसी एक ख्वाब़ थी

उस अंधेरी रात में वो, तेज रोशनी सी एहसास थी.


लग रही थी खुब़ वो तो, आसमानी लिवास़ में,

बड़ी अदब़ थी नज़रें उनकी, कुछ अलग वो पहचान थी.


मिलती थी नजरें जो उनसे, चेहरा छुपा लेती,

देख कर भी देखुँ उसको, वो अज़ब ही प्यास थी.


क्या थी खुशबु सॉसों की, जो हवा मॅहकाती थी,

और लव़ों की सुर्खियाँ, जैसे गुलों की ताज़गी.


मै नशे में था कहाँ ! पर होश अपना भी नहीं था,

वो हय़ा थी या अदा थी, मै तो समझा भी नहीं था.

गुलफ़ाम था वो हुस्ऩ उनका, जो मै ही मै बरसाती थी.


कुछ कहो अब, चुप ना रहो, दिल मेरा बेताब था,

इस तरफ़ था शोर इतना, फिर वो खामोश थी.


बीता सफ़र वो चली गई, कुछ भी उनसे कह ना पाया,

दिल ने समझाया मुझको, वो मेरी तलाश़ थी.

-- राकेश झा


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Friday, September 25, 2009

जरा वक्त गुजर जाने दो

जरा वक्त गुजर जाने दो,


जिन्दगी का वो रुतवा ना रहा,
अब जीने में वो मजा ना रहा,
सेहत--जिश्म वो हवा ना रहा,
और रिश्तों में वो वफा ना रहा,

शहर--मौसम तो है वही
जानवर तो जानवर ही हैं
पर ये इंसा, वो इंसा ना रहा,

जरा वक्त गुजर जाने दो,
ये रात अंधेरी है.
जरा सुबह हो जाने दो,
अभी नींद बाकी है
थका हुआ है तन-मन भी,
सो लेने दो.

जरा वक्त गुजर जाने दो,

ये क्या हुआ....
ये तो आग की लपटें थी
राख भी अब ख़ाक है,
अब बचा क्या है बचाने को.

जरा वक्त गुजर जाने दो,

खलिश क्यों हो संग--दिल पर,
पर ये दर्द वाहियात सी है,
बेकफन ये अब ये जमीं,
लगती कुछ बेजा़र सी है,

अब्र फलक पर लाल क्यों है,
ओश की बूँदे कहाँ हैं...
और हवा की वो रवानी,
जो थी फिजा की मद़मस्त दीवानी,
वो परों के पंछी कहाँ हैं..

बेमहाबा ये क्या हआ है,
नामाब़र भी कोई नहीं है,
नहीं किसी को ईल्म इसका,
मुसव्विर भी कोई नहीं है,
-
राकेश झा


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