Tuesday, April 6, 2010
कभी जो दीप जलते हैं
कभी जो दीप जलते हैं, तेरी यादों के
वही तो है, सहारा और क्या है..
मुझको दिखती नहीं अपनी परछाई
यही तो है, अंधेरा और क्या है..
मैं खो ही जाता हूँ, तेरी यादों के मेले में
शुकून के ये चन्द लम्हे भी, नहीं गँवारा जमाने को
मुझे फिर खींच लाती हैं, मेरी मजबुरियाँ अक्सर..
यही तो हाल है अपना, कहें कैसे रकीब़ो से..
सहम कर ख्वाब जगते हैं, अकेली तनहा रातों में
कभी फिर शोर करते हैं, इन शमशान राहों पे
खुदा ने भी क्या खूब़, मेरी तकद़ीर बख्शी है
कफन में मेरी सब, हसरतें लिपटीं हैं
तन्हा हूँ कि, अब बज्म़ में रखा क्या है
संगीत सूना, हर गीत अधूरा, और साज खफा है
पर जो है साँस लेती, मुसकुराती
तेरी तस्वीर जिन्दा है..
- राकेश झा
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एक अच्छी रचना...
ReplyDeleteआगे और खुबसूरत अंदाज-ए-बयां से साबका होगा, इसी आशा के साथ....
ढेरो शुभाशंसाएं....
राकेश भाई, ये "word verification" का चक्कर हटा दो तो टिप्पणीकारों को सहूलियत होगी..
ReplyDeleteहां एक बात और, "मेरी तकद़ीर बक्शी है" की जगह "मेरी तकद़ीर बख्शी है" करना श्रेयस्कर होगा...
ReplyDeletegood one dear keep writing .....
ReplyDeleteHi nice one.....
ReplyDeletekeep it up .....ur best performance still left.....
कविता तो बहुत अच्छी है, थोड़ा स्पेलिंग पर ध्यान दो
ReplyDeletelike, शुकून - सुकून
बहुत अच्छा प्रयास है
ReplyDeletenice one......
ReplyDeletesangeet suna,geet adhura, or saaj khfa hai.......